Monday, December 6, 2010
ज़िंदगी उलझी रही ...!!!!
खौफ़ से सहमी हुई है खून से लथपथ पड़ी
अब कोई मरहम करो घायल पड़ी है ज़िंदगी।
पुर्जा-पुर्जा उड़ गए कुछ लोग कल बारुद से
आज आई है खबर कि अब बढ़ी है चौकसी।
किस से अब उम्मीद रक्खें हम हिफ़ाजत की यहाँ
खेत की ही बाड़ सारा खेत देखो खा गई ।
यूँ तो हर मुद्दे पे संसद में बहस खासी हुई
हल नहीं निकला फ़कत हालात पर चर्चा हुई।
कौन अपना दोस्त है और कौन है दुश्मन यहाँ
बस ये उलझन थी जो सारी ज़िंदगी उलझी रही।
अपना ही घर लूटकर खुश हो रहें हैं वो ख्याल
आग घर के ही चरागों से है इस घर मे लगी।
Friday, December 3, 2010
मेरी प्यारी माँ
एक पेड़ जिसने कभी मुझे धुप लगने न दी ,
अपने आँचल में छुपा के रखा नज़र किसी की लगने न दी ,
याद आते है बचपन के दिन जब तू मुझे खिलाती थी ,
हर बार रोने पर तू ही मुझे हसती थी !!
अच्छी नींद के लिए नाजाने कहा कहा ,
से नयी लोरिया और कहानिया लती थी ,
रो पढता है यह दिल याद करके वोह दिन ,
जब हाथो से अपने खाना खिलाती थी !!
तेरी ऊँगली पकड़ के मैंने चलना सिखा ,
तेरी ही आँखों से यह संसार मैंने देखा ,
भगवन खुद न आ सका इसलिए ,
शायद तुझे मेरे लिए भेज दिया !!
नही तो वोह भी तो है यहाँ ,
जिन्हें लावारिस ही संसार में छोड़ दिया ,
आज फिर तेरी गोद में सोने को दिल करे ,
तेरे हाथो से खाने को दिल बेकरार है !!
याद आ गए वोह सुन्हेरे दिन ,
दिल आज भी उस समय में जाने को बेकरार है ,
बस अब यादें ही रह गयी याद करने को ,
बचपन लोट के तो आ नही सकता !!
तुझे कितना चहता हूँ माँ ,
तुझे कभी यह बाता नही सकता ,
मेरा हर सांस तेरा एहसान है,
जब चाहे इसे ले लेना ,
छोड़ के न जाना कभी चाहे ,
मेरी सांसे भी मुझसे ले लेना !!!!
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